गुल्लक और मेज की बजटीय समझदारी
बजट आ गया है । उसे तो आना ही था । पुरातनपंथी लोग उसके आगत की पुष्टि मिट्टी की बनी अपनी -अपनी अदृश्य गुल्लकों को हथेली पर तोल कर कर रहे हैं । ऐसा वे बरसों
से करते आये हैं । उनके लिए बजट प्रावधानों को परखने का यह सनातन
टोटका है । इस बार गुल्लक मौन है । उसकी
चुप्पी रहस्यमय लग रही है । वह बजट को ठीक
से समझ ही नहीं पा रही । गुल्लकें मूढ़मति होती हैं ।
एक समय वह भी था जब गुल्लक वास्तव में हुआ करती थीं । कुम्हार उन्हें
अपने चाक पर बड़ी मोहब्बत के साथ गढ़ते थे ।
उसमें लोगों के खूबसूरत सपने पलते थे । आपात
स्थिति में गुल्लक डूबती घर -गृहस्थी के लिए पतवार बन जाती थी । उसके भीतर रखे सिक्कों की खनक से उम्मीदों के
बजट बनते थे ।
बजट जब भी आते हैं । बकायदा
आते हैं । तय वक्त पर आते हैं । पूरे विधिविधान के साथ आते
हैं । लीक होते हुए आते हैं । ब्रीफकेस में छुपते -छुपाते आते हैं । बड़ी धूमधाम के
साथ आते हैं । हँसते खिलखिलाते आते हैं । चुटकुला फैक्ट्रियों के लिए प्रचुर
मात्रा में कच्चा माल लेकर आते हैं । इसके जरिये लिपस्टिक सस्ती होने की खुशखबरी आती
है तो लोग हँसते हैं । चना चबेना महंगा होने की खबर आती है तो मनमसोस कर रह जाते
हैं । जब यह पता चलता है कि डार्क चॉकलेट टैक्सफ्री
हो गई है तो जनता तुरंत समझ जाती है कि
चना चबेना खाने का जमाना गया । यह चॉकलेटी चाहतों के साकार हो जाने का समय है । यह
खाने के लिए रोटी न मिले तो भुखमरी के कगार पर खड़े लोगों को केक पेस्ट्री खाने का राजसी मशविरा देने का
वक्त है ।
बजट के जरिये सरकार की पोटली से जनता जनार्दन के लिए न जाने न जाने क्या
-क्या ऊलजलूल निकल आया है । सब एक दूसरे से पूछ रहे हैं कि भइये कुछ समझ में आया
क्या ? लगता यही है कि राजधानी के मेघों की समझ में यह बजट आ गया है इसलिए वे बेमौसम पानी बरसाये चले जा रहे हैं । खूब तड़क भड़क रहे हैं । विपक्षियों के करने लायक काम यह कर रहे है । वैसे
सबसे पहले सदन की मेजें बजट को ठीक से समझ पायी थीं इसीलिए वही बजटीय उदघोषणाओं के बीच ट्रेजरी
बेंचों द्वारा सबसे अधिक वही थपथपाई गई ।
यूंभी गुल्लकों और मेजों की गर्दनें नहीं होती इसलिए उनकी सहमति में
हिलती गर्दनें बाय डिफॉल्ट मान ली जाती हैं ।
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