दुख भरे दिन बीते रे भैया


sorrowful days ago

जब से मुल्क में नई सरकार आई है, जिंदगी आसान होती जा रही है। जिधर देखो, उधर से एकाध अच्छी खबर आती दिख जाती है। पेट्रोल के दाम डेढ़ रुपये प्रति लीटर घट जाते हैं, फिर पचास-साठ पैसे बढ़ जाते हैं। चीनी की कीमत पांच-सात रुपये प्रति किलो बढ़कर पचास पैसे घट जाती है। प्याज अस्सी-नब्बे रुपये तक पहुंचकर तीस-पैंतीस पर जाकर टिक जाता है और सस्ता हो जाता है! और तो और, मुद्रास्फीति भी घट जाती है, पर बाजार में चीजों के दाम उतने ही पर बने होते हैं। अर्थव्यवस्था के गति पकड़ने का रहस्य न कोई पूछता है, न कोई बताता है। इसके बावजूद समूची दिनचर्या एकदम इवेंटफुल हो गई है। मुस्कान ने लोगों के होंठ पर जैसे स्थायी बसेरा कर लिया है। अब कोई सरकार को नहीं कोसता। जब ऐसी जरूरत आन पड़ती है, तो अपनी फूटी तकदीर को जरूर बुरा-भला कह लेते हैं।

मौसम का मिजाज बदल गया है। तूफान भी आता है, तो हुदहुद की तरह। जनता इसे ठीक से समझ पाए, इससे पहले ही वह फुर्र भी हो जाता है। देश को सुनामी के डर से मुक्ति मिल गई है। शिक्षक दिवस और गांधी जयंती जैसे दिखावटी दिन अब इतने बड़े उत्सव बन गए हैं कि पूछिए मत। जिस झाड़ू ने आम आदमी पार्टी को सपने दिखाकर लूट लिया, अब उसका महत्व पूरी दुनिया जान रही है। क्या यह कोई छोटी बात है?

सोशल मीडिया पर भी बहुत कुछ शानदार घटित होने लगा है। आभासी दुनिया और असलियत के बीच की झीनी चदरिया सरक गई है। फेसबुक पर तरह तरह के मसखरे स्टीकर के रूप में आ गए हैं। इन्हें जब चाहो, जहां चाहो, चिपकाओ। अब लिखने-लिखाने का झंझट नहीं। हर काम बुलेट ट्रेन की स्पीड से होने लगा है। मतदाता वोट डालने के लिए इंतजार करते रह जाते हैं और एक्जिट वाले नतीजों का ऐलान कर देते हैं। अब चाहे वोट डालो, न डालो, क्या फर्क पड़ता है। लोग खाली पेट खुश और आश्वस्त होने की कला सीखते जा रहे हैं। यानी आजादी के इतने वर्षों बाद भारत सही अर्थों में अपने पैरों पर खड़ा हो रहा है।

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