होली का आना जाना और मनाना ,,,,


होली आई और आकर चली गई । सबने अपने अपने हिस्से का हुडदंग या तो मचाया या फिर मचाने की पुरजोर कोशश की ।  नैचुरल उल्लास और उमंग की आमद जरा कम रही।  सिंथेटिक उन्माद की नकली खोये से बनी गुजियों की तरह बजार में भरपूर डिमांड और आवक रही ।  चेहरों पर लगे रंगों  को रगड़ रगड़ कर छुडाते हुए लोगों को रंगे हुए सियार बरबस याद  आये । पड़ोसी मुल्क से आई ऑटोमैटिक पिचकारियों ने हरे से लेकर केसरिया और नीले से लेकर पीले रंग तक समान उदार भाव से छिड़क कर लाल रंग के प्रति अपने अतिरिक्त मोह को मुनाफे के कारोबार की खातिर त्याग देने का संदेश दिया ।
होली के दिन नए मिजाज के सारे शहर  अनायास हैल्थ कांशस हो उठे । स्वाइन फ्लू के प्रकोप से बचने के लिए लोगों ने एक दूसरे को गले लगाना स्थगित रखा । हाथ मिलाये तो मुहँ पर मास्क और हथेलियों पर दस्ताने पहन कर बड़ी एहतियात के साथ । तरह तरह के मुखौटे और दस्ताने इस मौके पर खूब बिके । राजनीतिक लोग एक दूसरे का मुहँ काला करने की जुगत में लगे रहे ।
होली तो जिनकी होनी थी हो ली बाकी लकीर के फकीर अपने बुझे हुए चूल्हे पर टेसू के फूलों के सहारे जिंदगी को रंगमय बनाने का ख्वाबी पुलाव पकाते रहे । बीरबल की खिचड़ी की तरह स्वप्नजीवी खानसामों द्वारा पाकए जाने वाले पकवान आसानी से कहाँ पक पाते है ?
 वैसे तो इस बार होली राजधानी में खासतौर पर मनायी जानी थी ।  पर वहां होली तय वक्त से पहले आ धमकी । रंगपाशी से पहले मनभेद के पटाखे फूटने लगे ।  आप वाले खास बन गए । आपसी टन्टों  के चलते गुलाल का रंग काला पड़ गया । चेहरे चिकने चुपड़े बने रह गए  , मन मलीन हो गये  । आरोप प्रत्यारोपों की फुलझड़ियों जल उठीं । होली- दीवाली का रीमिक्स प्रकट हुआ  ।
होली के अवसर पर मौसम भंग खुद –ब- खुद घोल देता है लेकिन सिल बट्टे पर घुटी भंग की तरंग की बात ही कुछ और होती है । अनेक निराशावादी जी कहते मिले कि पूरे कुएं में जब भांग गिरी हो तो क्या किया जाये । मैंने उनसे कहा कि तब उस कुएं के पानी को फिल्टर करके पिया जाये । उन्होंने कहा कि आप तो हर बात पर मजाक करते हैं । मैंने कहा कि मैं कुछ नहीं करता । हास अपनी जगह और परिहास उपयुक्त पात्र उसी तरह खुद दूंढ लेते  हैं  जैसे तितलियाँ फूलों का एड्रेस ‘येलो पेजेस’ पर नहीं तलाशतीं, स्वत: पा जाती हैं ।
इस बार होली आई तो पर ठीकठाक तरीके से नहीं आ पायी । कुछ स्थानों पर आपसी छीछालेदार के जरिये यह वक्त से पहले हो ली । कहीं यह आलाकमान की उदासी और कारिंदों के गुमशुदा की तलाश में व्यस्तता  के चलते  उचित समय के लौट आने तक के लिए स्थगित कर दी गयी । किसी को इसे  ग्रेंड इवेंट बनाने लायक उपयुक्त प्रायोजक नहीं मिले ,इसलिए यह मन नहीं पायी । कुछ लोग कोपभवन में बैठे कुढ़ते रहे और तकते रहे कि उनका कोई मनाने आये ।  कोई आया नहीं और वे बिना रंगे कोरे के कोरे रह गए । समय बदल गया है । अब होली केवल गुजिया, गुलाल, टेसू के रंग ,भंग ,तरंग ,ठिठोली ,ढोलक की थाप ,उमंग और उल्लास के सहारे नहीं मनती । इसे मनाने के लिए पूरा ‘रोड मैप’ तैयार करना पड़ता है ।
कीमती पिचकारियों के जरिये  होली के रंगों को इस उस पर बिखेरा तो जा सकता है लेकिन रंगोत्सव को मनाया नहीं जा सकता 

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