क्रॉस वोटिंग और भोजन-भट्ट की तोंद की परिधि


वे क्रॉस वोटिंग करके बाहर आये तो उनके चेहरे पर गजब का नूर था।आमतौर पर ऐसी चमक क्रीम पॉलिश के बाद  जूतों में परिलक्षित होती है या ब्यूटी पार्लर से बाहर निकलती ‘आंटियों’ के मुखड़े पर दिखती है।मॉर्निंग वॉक पर  आदमी को  टहलाने गये टॉमी की टेल लेंग्वेज(दुम की भाषा) में छलकती है या मुफ्त के मालपुए उदरस्थ करने के बाद भोजन-भट्ट की तोंद की परिधि में दमकती है।लोकतंत्र इसी प्रकार के  प्रसंगों की वजह से खुद  को महिमामंडित करता है।बीच –बीच में राज्यसभा, विधान परिषद आदि के चुनाव न हों तो राजनीति किस कदर एकरस,बोरिंग और बिना घी वाली मूंग की दाल की खिचड़ी हो कर रह जाए।
ऐसे मौकों पर वोट तो सभी डालते हैं लेकिन जो मेधावी होते हैं वे अपनी अंतरात्मा की आवाज़ पर मताधिकार का इस्तेमाल करते है।पार्टी अनुशासन बड़ी चीज है लेकिन अंतरात्मा उससे भी उपयोगी  वस्तु है।इस वस्तु के इस्तेमाल का अलग विधान और वास्तु शिल्प होता है।आत्मा और जेब का जब परस्पर समन्वय होता है तब ठोस राजनीतिक मतवाद एकदम तरल हो जाते हैं।कोई माने या न माने, यह तरल सहजता ही है ,जिससे जिंस और जिंदगी का कारोबार चलता है।
कहने वाले तो यहाँ तक कहने लगे हैं कि राजनीति में क्रॉस वोटिंग और राजनय में क्रॉस बॉडर टेररिज्म एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं।ऐसा सिक्का जो जब हवा में उछलता है तो मनोवांछित नतीजा ही सामने लेकर आता है।इससे सदा बड़ी-बड़ी बहसों की शुरुआत होती है और अंततः सदाशयता व शुभकामनाओं के साथ उनका उपसंहार हो जाता है।क्रॉस वोटिंग करने वाले ही भली प्रकार जानते हैं कि लीक से हट कर चलने में कितना रूहानी रोमांच और भौतिक रोमांस  निहित होता है।
वैसे क्रॉस वोट करना इतना आसान भी नहीं होता,यह एक कला है।बड़ी मुश्किल से सध पाती है।यह उतना ही अधिक जोखिम से भरा काम होता है जैसे मधुमक्खी  के पैर में डोरा बाँध कर हवा में उड़ाने के लिए उसका डंक निकालना।
कहने को तो क्रॉसिंग का यह  खेल सिर्फ खेल जैसा ही है लेकिन इसमें हरेक नहीं जीतता।बिहार के टापरों की तरह लोग इसमें हीरो बनते-बनते जीरो भी हो जाते हैं।


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