उड़ता हुआ पंजाब और हंसती कुर्सी


उड़ता पंजाब आख़िरकार रिलीज हो गयी।एक फिल्म समीक्षक को कहते सुना गया कि यह फिल्म लंबी दौड़ का घोड़ा है।इससे पहले तो यही लग रहा था कि यह फिल्म फिल्म न होकर कोई परिंदा है,जिसके पंख कतरने और न कतरे जाने को लेकर विवाद है।खबर तो यह भी आई थी कि फिल्म रुपहले पर्दे पर आने से पहले ही लीक हो गयी।तब सवाल उठा  था कि यह फिल्म है या किसी स्कूली बच्चे का लंच बॉक्स कि उसमें से परोंठे के साथ रखे अचार में से तेल रिस जाए।
एक समय था जब किस्सा कुर्सी का खूब उड़ा था।जब यह किस्सा चारों ओर मंडरा रहा था तब भी कुछ  लोग सोच रहे थे कि फर्नीचर की दुकान पर जहाँ-तहां बिकने वाली कुर्सी को लेकर इतनी शाब्दिक तलवारें  क्यों भांजी जा रही है।एक ब्रांड की कुर्सी यदि नहीं जंच रही  तो न सही,दूसरी ले आओ।इसी तरह की बात जब किसी ने नाई की दुकान पर सार्वजनिक रूप से कही  तो ग्राहक के बाल कतरता बारबर मास्टर फिस्स से हंसा।उससे भी अधिक जोर से कुर्सी हंसी।देर तक हिचकोले लेती रही।उसका हिलना तब रुका जब बाल कटवाने वाले ने कहा-हे कुर्सी ,यह बात तुम्हारे बारे में नहीं, आज के राजनीतिक हालात पर टिप्पणी है।
उड़ता पंजाब बिना उड़े ही काफी उड़ान भर चुकी है।किसी हसीना के मलमल के दुपट्टे की तरह सोशल मीडिया की  खुली हवा में खूब लहरा ली है।अब वह सिनेमा हॉल के स्क्रीन पर आयी है।गुपचुप देखने का रोमांच खत्म हुआ।कौतुहल तभी तक बरक़रार रहता है जब तक कुछ दबा ढंका या गोपन रहता है।
पंजाब उड़े या अमरीकी ड्रोन या फिर कोई अन्य उपकरण,हर चीज के उड़ने की एक तय सीमा और मियाद होती है। समय समय पर चर्चाओं के नभ पर अलग अलग चीज उड़ती रहती हैं।कल तक पंजाब उड़ रहा था।आज महंगा टमाटर उड़ने में लगा है।हो सकता है कल देशभक्ति पंख तौलने लगे या विश्वप्रेम हिरन की तरह विमर्श के जंगल में कुलांचे भरता दिख जाए।।बदलते वक्त के साथ किरदार बदल जाते हैं।भूमिकाओं में उलटफेर हो जाती है। कहानियों के फॉर्मेट और पात्र बदल जाते हैं,किस्से जस के तस रहते हैं।

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