खीसे निपोरते टॉपर और अंकपत्रों से टपकते नम्बर
परीक्षाओं के परिणाम
आ रहे हैं।निरंतर आये ही जा रहे हैं।एक ओर यत्र तत्र खीसे निपोरते कतिपय टॉपर अपनी
मौलिक प्रतिभा से सबको हतप्रभ करते दिख
रहे हैं तो दूसरी ओर सर्वशिक्षा अभियान वाले गली -गली और मोहल्ला -मोहल्ला जाकर ‘चलो
स्कूल’ की हांक लगा रहे हैं।बच्चा आनाकानी करता है तो उसे फुसलाते हैं,बहलाते हैं
और फिर भी जिद पर अडिग रहे तो जबरन उठाकर वायुमार्ग से स्कूल ले जाते हैं।शैक्षिक
कार्यकर्ताओं के दो जोड़ी हाथों के बीच हवा में तैरते ये बच्चे मुल्क के मुस्तकबिल
के खेवनहार हैं।
बच्चा एक बार जब
स्कूल जाना शुरू करता है तो कुछ दिनों में ही वहां रम जाता है।मिड-डे मील आदि के लिए छीना- झपटी करता हुआ वह अपना हिस्सा
हथियाने का हुनर सीख जाता है।बाद में ककहरा सीखने के साथ तमाम तिकड़म भी सीख लेता
है।शिक्षकों की खिदमद और चिरोरी करके परीक्षा में मनोवांछित अंक प्राप्त करने का
तरीका जान लेता है।बिना ठीक से पढ़े लिखे उत्तर पुस्तिका में समग्र ज्ञान रोप देने की कला का निष्णात काश्तकार
हो जाता है।यही बच्चा बडा होकर सबसे अपने बौद्धिक चातुर्य का लोहा मनवाता है।अपने
प्रदेश का नाम रोशन करता हैं।अपनी कीर्ति का डंका बजवाता हैं।
आज के दौर में स्कूल
कालेज के परीक्षकों से अधिक उदार कोई नहीं है।अब परीक्षक परीक्षा कापियां जांचते
हुए अंक उसी तरह लुटाते हैं जैसे कभी गाँव कस्बे के मनचले सिनेमा घर के पर्दे पर
नाचती हुए नायिका को देख सिक्के बरसाते थे।वे अंकपत्रों को इतने अधिक नम्बरों से
लाद देते हैं कि बोदे कागज पर यदि मार्कशीट का प्रिंट लिया जाए तो हो सकता है कि दस बीस नम्बर झड़बेरी के बेर की तरह उसमें से
नीचे टपक जाएँ।
सच तो यह है कि
परीक्षा की मार्कशीट में टंके नम्बर महज नम्बर नहीं वरन शीर्ष पहुँचने के लिए बांस
की सीढ़ी में बंधे मजबूत समानांतर डंडे
होते हैं।अब कोई किसी से यह निरर्थक सवाल न पूछे कि यह सीढ़ी उसे मिली तो मिली कैसे
? बिहार के मेधावियों को लेकर उठ रहे सवालों में से यकीनन ईर्ष्या की बू आ रही है।ध्यान
रहे, सुशासन की हामी जनता को इस तरह की मीनमेख कतई बर्दाश्त नहीं।
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