पगडियों के जरिये तय होता मुकद्दर


यह खुद पगड़ी पहनने से अधिक दूसरों की पगडियां उछालने का मौसम अधिक है।बारिश की ऋतु तो ‘ऑन पेपर’ है।इसके होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।वैसे तो पगड़ी के सिर पर होने या न होने से भी कुछ नहीं बनता - बिगड़ता ।इसके बावजूद अदृश्य पगडियां चाहे- अनचाहे सभी प्रमुख  सिरों पर मौजूद रहती है। सरकार की पगड़ी उछालने का खेल कुछ लोग बड़े मनोयोग से खेल रहे हैं।उनका यकीन है कि सरकार की पगड़ी की कोटर में वह मिथकीय तोता रहता है , जिसमें सियासी राक्षस के प्राण बसते हैं। वे सरकार की पगड़ी को गिरा कर उसमें छिपे तोते की गर्दन मरोड़ना चाहते हैं।
तमाम पुरातनपंथी लोगों की धारणा हैं कि  बुद्धिमत्ता सिर के ऊपरी माले में बसती है जबकि सरकार सबको बताने में लगी है कि मेधा  डिजिटल होती है और इसे  माईक्रो चिप के जरिये कहीं भी संभाल कर रखा और इस्तेमाल किया जा सकता है। आधुनिक संदर्भ में पगड़ी बतौर पहनावा भले ही सिर्फ धार्मिक रह गई हो लेकिन इसके जरिये होने वाली  राजनीति पूरे उफ़ान पर है। सोशल मीडिया  के रणबांकुरे पगड़ी को लेकर बेहद सम्वेदनशील  हैं।वे समय -असमय किसी न किसी की पगड़ी उछाल देते हैं।
अतिउत्साही निंदकों का मानना है कि सत्तासीन लोग अपने  इस्तीफे अपनी पगड़ी में खोंस कर  रखते हैं । वे उसे गिरा कर उसमें से उचित इस्तीफे ढूंढ रहे हैं । जानकारों का कहना है कि तोता तो सिर्फ एक रूपक है असल मामला तो इस्तीफे का है।
पगड़ियों के भीतर- बाहर आँख मिचौनी का सनातन खेल निरंतर जारी  हैइस समय ये पगडियां फुटबॉल बन गई हैं । ये पूरे मुल्क के चिंतन में इधर से उधर उछल रही हैं।खिलाड़ी अपनी -अपनी सामर्थ्य भर उसे पकड़ते उछालते सँभालते दौड़ लगाते हांफ रहे हैं।इस खेल का गोलकीपर लंदन में बैठकर  लगातार नई फुटबॉल मैदान में भेज रहा है।वह अत्यंत प्रतिभाशाली गोलकीपर है । उसके  पास तक कोई गेंद आये ,इससे पहले वह नई बाॅल दन्न से मैदान की ओर किक कर देते हैं।  इस  समय अनेक फुटबॉल मैदान में हैं।इनमें कौन सी आफिशियल है ,इसका कुछ पता नहीं । मीडिया असलियत का पता लगाने में जुटा है। 
देखते ही देखते अनेक सत्यनिष्ठ पगडियां भी फुटबॉल बन गई हैं और खिलाड़ी इतनी शिद्दत से एक दूसरे के पाले की ओर किक मार रहे हैं कि मानो मुल्क की सवा सौ करोड़ जनसंख्या का  मुकद्दर इन्हीं के जरिये तय होना हो।

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