नैतिकता का आधार


मानसून के साथ मक्खी मच्छर और उमस का आगमन ठीक उसी तरह से हुआ  है जैसे बारात के जनवासे में पहुँचते ही ढोल तासे वाले बिन बुलाए तड तड करते हुए प्रकट हो जाते हैं । जब धुआं उठता  है तो आग़ के इर्दगिर्द होने अंदाज़ा स्वत: लग जाता है । राजनीतिक पटल पर जब किसी पदासीन से इस्तीफा मांगने की रुत आती है तो नैतिकता अपने आधार के साथ इस तरह खुद-ब-खुद नमूदार हो जाती है जैसे योगाभ्यासी लोग सुबह होते ही सार्वजनिक पार्क में चटाई बगल में दबा कर आ जाते हैं । जिस तरह बिना चटाई के योग नहीं हो सकता उसी प्रकार नैतिकता की ओढ़नी के बिना किसी से इस्तीफे की मांग करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है ।
वैसे तो बरसात का मौसम पेड़ से टपके हुए आम चूसने और लज्जतदार पकौड़े खाने के लिए उपयुक्त मना गया  है लेकिन जिसके  पास राजनीतिक समझ है उसके लिए  यह वक्त सरकार से लेकर इलाके के सफाईकर्मी तक को कोसने के लिए मुफीद होता है । ऐसे में यदि एकाध इस्तीफ़ा -विस्तीफा मांगने का मौका मिल जाये तो समझो गर्मागर्म समोसों के साथ मेथी की जायकेदार चटनी मुफ्त में मिल गई । जैसे उबली हुई लौकी की बेस्वाद सब्जी में प्याज ,लहसुन ,हींग ,जीरे का देसी घी में तड़का लग जाये ।
लोकतंत्र में सरकार को एक बार चुन लेने के बाद अगले पांच वर्ष तक कुछ नहीं किया जा सकता लेकिन इस्तीफ़ा एक ऐसी चीज है जिसे कभी भी माँगा जा सकता है । जब ऐसा करने की कोई पुख्ता वजह न हो तो इसे बड़े आराम से नैतिकता के आधार पर माँग लिया जाता  है । इसके लिए किसी सुबूत या दस्तावेज़ या स्टिंग ऑपरेशन की क्लिपिंग की भी जरूरत नहीं पडती । इसके लिए नैतिकता ही पर्याप्त होती है ।
नैतिकता एक निरर्थक अभिव्यंजना है । भाषाविदों की मानें तो यह उसी तरह का फिजूल का शब्द है जैसे चाय के साथ शाय ,पकौड़ी के साथ शकौडी और इश्क के साथ विश्क । इसके बावजूद नैतिकता के आधार पर पचास प्रतिशत पुरुष आबादी शेष पचास प्रतिशत महिला आबादी के लिए सदियों से ड्रेस कोड तय करती आई है । इसके जरिये ही धर्म की ध्वजा अपनी पूरी धज के साथ लहराती हुई लगती है जबकि वास्तव में वह मजबूत डंडे के बल पर प्रतिष्ठित होती है और हवा के झोंके से हिलती है ।
नैतिकता का आधार एक अदृश्य बलिष्ठ डंडा होता है जिसके सहारे लोग वाकपटु और वाचाल टाइप के  लोग अपने मंतव्यों की भैंस हांक कर ले जाते हैं । अब कहावत यह होनी चाहिए कि जिसकी नैतिकता में जितना दम वह उतना अधिक दूध काढ़ ले जाये । इसके लिए भैंस या गाय को पालना  कतई जरूरी नहीं । नैतिकता का वही आधार कारगर होता है जिसके साथ बाहुबल होता है । अन्यथा नैतिकता बेहद फुसफुसी वस्तु होती है । कुछ- कुछ किसी निर्बल काया की उस बहादुरी जैसी जिसके लिए किसी पहलवान को गाली देकर तुरंत ओट में छुप जाने की जरूरत पड़ती है  ।
वास्तव में नैतिकता ताश की गड्डी  का जोकर या पपलू होती है जिसको कहीं भी फिट करके हारी हुई बाजी जीती जा सकती  है । यह कठपुतलियों मे बंधा वह डोरा है जिससे निष्प्राण विदूषक की ढपली बजाने लगती  है । राजनीति में हताश विपक्षी खेमे के लिए ये बड़े काम की होती है । इसके आधार पर वे कोई भी मांग किसी भी वक्त उठा  और वापस धर सकते हैं  । सघन निठल्लेपन के बीच नैतिकता एक गाव तकिये की तरह  है जिस पर थकी हुई रूह को टिकाकर चैन की साँस ली जाती है । नैतिकता हारे हुओं  को पराजय बोध नहीं होने देती । यह उस कागज के टुकड़े  की तरह है जिस पर शिकायत भी दर्ज की जा सकती है और इसे तोडमरोड कर हवा में तैरने वाला कनकौआ बनाया जा सकता है और जल में तिरने वाली नाव भी ।
नैतिकता निराकार होती है , यह दिखती नहीं पर होती है । पर इसका आधार होता है ,यह बात एकदम पक्की है । इसके  सहारे बड़ी बड़ी बातें और डील हो जाती हैं और किसी को भनक तक नहीं मिलती  ।

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