हिंदी का ग्लोबलाइज़ेशन और फर्जी तसल्लियों की तितलियाँ


हिंदी वैश्विक भाषा बनने की ओर अग्रसर है।अग्रसर क्या है ,इसे अब लगभग बनी ही समझो। इतनी तामझाम के बाद यह तो होना ही है। जब जब विश्व हिंदी सम्मेलन होता है तब तब ऐसी ही अनुभूति होती है। भोपाल में लोग जीभर के हिंदी बोल आये। अब अगले एक साल तक कोई  हिंदी में खुल कर बोलेगा तो वह उसके गले में अटक कर रह जायेगी।यह अलग बात है कि दिन भर अंग्रेजी में बतियाने के बावजूद वे सपने वर्नाकुलर लेंग्वेज में ही देखंगे। सिर्फ इतना ही नहीं यदि हिंदी में बोले तो इस अदा से बोलेंगे कि वह लगभग अंग्रेजी –सी लगे।
हम हिंदी से उसी तरह प्यार करते हैं जैसे अपनी निपट देहाती माँ से करते  हैं।कहने का जब मौका मिलता है तो कहते हैं कि माँ है तो जहान है।उसकी गोद में जन्नत होती है।लेकिन वह तभी तक अच्छी लगती है जब तक गाँव देहात में रहती है।यदि कभी वह महानगर में बेटे के पास रहने आ जाये तो लगता है कि इसने तो बनी बनाई इज्जत का फालूदा बना दिया। यही हाल हिंदी का है।  इसे भी हर जगह कैसे उच्चारा जा सकता है? इसे बोलने से आदमी की जेन्टिलमैन वाली छवि पर विपरीत असर पड़ता है।हिंदी घरघुसरी टाइप की भाषा है।वहीं जंचती है। ठीक उसी तरह जैसे माँ गांव में फबती है।
हिंदी के ग्लोबलाइज़ेशन के लिए लोग सात समंदर पार से आ रहे हैं।लोगों को लग रहा है कि वे उसे अपने साथ सुदूर देशों में ले जायेंगे।वे कह रहे हैं कि वे अपनी हिंदी के लिए कुछ भी कर सकते हैं।उनके बटुए में डॉलर पाउंड और यूरो भरे हैं।वे जो चाहे कर सकते हैं।लेकिन समस्या एयर कार्गो की है।उनके हिसाब से हिंदी जरा वजनी भाषा है। उसे साथ ले जायेंगे तो यहाँ से ले जा सकने लायक तमाम चीजें छूट जायेंगी।मसलन गर्म मसाले का पैकेट ,घर का बना आम, नीबू, टीट और करोंदे आदि का अचार,दीवार पर टांगने के लिए बतौर शोपीस खरीदा गई सारंगी  आदि। उनके पास भोपाल में मिला इतना दुलार भी होगा कि हिंदी के लिए जगह बचना मुमकिन नहीं है।

इस बार वे हिंदी के लिए अपने प्यार को समेटे भारी मन से लौट जायेंगे।फिर मौका मिलेगा तो इसे जरूर साथ ले जायेंगे। फर्जी तसल्लियों की तितलियों के परों पर हिंदी कायम है।

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