ठुल्ले और अलौकिक निर्वात में उनका वजूद


अदालत ठुल्ले का मतलब पूछ रही है।समानांतर कोष वाले अरविंद कुमार  जी शब्द को चिमटी से पकड़ कर बड़ी ईमानदारी से उसकी रिहाइश के लिए डिक्शनरी  में उपयुक्त जगह ढूंढ रहे हैं।फ़िलहाल शब्दकोशों में यह शब्द ढूंढें नहीं मिल रहा।इस सबके बावजूद ठुल्ले हर जगह हैं और हरदम हैं।बड़े काम के हैं।निष्काम हैं।उन दुर्लभ स्थानों पर भी है जहाँ न ईश्वर रहता है और न शैतान।इस तरह के अलौकिक निर्वात में भी ठुल्लों का वजूद रहता  है।इसलिए रहता है क्योंकि ठुल्लापन हर हालात में रह लेता है।अपनी निरर्थकता के मध्य बड़े मजे से बना रहता है।वैसे ठुल्ले ही हैं जिनकी वजह से समाज में थोड़ा-बहुत खौफ और ला एंड ऑडर है।हर आपदा के समय इन्हें ही सर्वत्र उपलब्ध ईश्वर की बजाय याद किया जाता है।वे थोड़ा विलम्ब से ही डायल -100 पर बतियाने के लिए मिल भी जाते हैं।आसमानी ताकतों का तो न ही  कोई सर्वज्ञात हेल्पलाइन नम्बर है और न ही उसकी कोई ईमेल आईडी।वेब पोर्टल भी नहीं है।इसका जो पता धर्मग्रन्थों में मिलता  है उस एड्रेस पर तो उसकी जगह तमाम तरह के  बहुरूपिये रहते हैं।
ठुल्ले  है।बाकायदा है।उनका अस्तित्व वास्तविक है।वे  कोई आभासी रूपक नहीं हैं। किसी प्रकार  काव्यात्मक बिम्ब भी नहीं है।उनका कोई अर्थ हो या न हो लेकिन उनका होना निर्विवाद है।उचक्का किसी का सामान छीन कर भागता है तो उस समय दो बाते होती हैं। भागता हुआ उचक्का सोचता है कि कहीं कोई ठुल्ला उसकी दौड़ में टांग न अड़ा दे और लुटा हुआ आदमी सपना देखता है कि अपवाद स्वरुप ही सही उचक्का ठुल्ले की पकड़ में आ जाए।मजे की बात यह है कि कभी-कभी इसी ठुल्ले के कारण लुटेरे का दुस्वप्न और लुटने वाले का  सुंदर सपना  साकार हो जाता हैं। किसी का कच्ची नींद में सपना टूटता है तभी  तो कोई  चाहत पूरी होने का जश्न मनाता है।हमारे अधिकांश उत्सव इसी तरह के चोर-सिपाही के शाश्वत खेल के बाय प्रोडक्ट हैं।
ठुल्ले दरअसल ठुल्ले कहा ही इसलिए जाते हैं क्योंकि वे  हर जगह अकसर ठहलते हुए मिल जाते हैं।पनवाड़ी से मुफ्त में सौंफ लेकर उसे चुभलाते हुए।45 डिग्री सेल्सियस के तापक्रम में गर्म भाप वाली चाय का लुत्फ़ लेते हुए।मूसलाधार बारिश में अपनी टोपी को पौलीथीन की पन्नी से ढंके हुए।सर्द रातों में जमीन पर डंडा फटकार कर झुझलाहट दूर करते हुए।मन ही मन दूरस्थ गाँव में रह रहे बीवी बच्चों और बुजुर्ग माता पिता के कुशलक्षेम के लिए अस्फुट प्रार्थनायें बुदबुदाते हुए।घटाटोप अँधेरे में मोहल्ले के चौकीदार की चारपाई के पैताने बैठ उससे खैनी और चूना मांगते हुए।पार्किंग में खड़ी हुई आपकी चमचमाती हुई गाड़ी को अपने  मैले हाथों से छू कर उसे दागदार सुरक्षा देते हुए।खुलेआम हुई वारदात के बाद प्रत्यक्षदर्शियों की अनभिज्ञता पर चौंकते हुए।इलाके के बाहुबली से रहमदिली की उम्मीद करते हुए।वीआइपी और वीवीआइपी की सुरक्षा के लिए भीड़ को परे धकेलते हुए।अधिकारियों और नेताओं की डांट तथा जनता की दुत्कार को साक्षीभाव से श्रवण करते  हुए।

यह ठुल्ले ही हैं जिनकी वजह से राजनेताओं का खोटा रुआब खरे सिक्के सा खनकता है।यह सच है कि वाकई ठुल्ले का कोई मतलब नहीं है लेकिन इन्हें इस बात की परवाह ही कब है।  

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