समय तो वाकई बदल गया है


वक्त बदल गया है।मौसम भी बदला है।ऋतुएं जल्दी-जल्दी अपने पन्ने पलट रही हैं।जब से नई सरकार आई है रातों -रात बहुत कुछ बदल गया है।अमनपसंद कबूतर खूंखार हो गये हैं।गुटरगूं गुटरगूं की जगह गुर्राते हुए लगने लगे हैं। गौरेया के बारे में उड़ती हुए बेपर की खबर यह आ रही है कि वह पड़ोसी मुल्क में आतंकवाद के प्रशिक्षण के लिए गयी है।आपसी राम राम में स्वार्थी तत्वों को साम्प्रदायिकता की धमक सुनाई देने लगी है।लोग एक दूसरे की खिल्ली उड़ाने के लिए चौबीसों घंटे नये से नये मुहावरे रच रहे  है।यहाँ तक कि मेरे घर के बाहर लगे गुलमोहर के पेड़ पर लाल फूल फुनगी पर लगने लगे है।इसकी छोटी-छोटी पत्त्तियाँ धरती पर बिखर कर सिर्फ मासूम पत्ती नहीं, गंदगी लगने लगी हैं।स्वच्छता अभियान वालों का टोला इस गंदगी के बावत मुझे और गुलमोहर को सख्त शब्दों में चेता चुका है।इसका परिणाम यह हुआ कि पेड़ ने फूलों को पत्तों की ओट में छुपा लिया ,पर पत्तियों को फैलाना बदस्तूर कायम रखा है।दरख्त कमोबेश आदतन जिद्दी होते हैं।हालाँकि मैं सहमा हुआ हूँ।
सब कह रहे है तो ठीक ही कह रहे हैं कि अब समय पहले जैसा नहीं रहा।लोकतंत्र में जब बहुमत कुछ कहता है तो उसे बाय डिफॉल्ट सत्य मान लिया जाता है।अब टाइम पहले की तरह दीवार पर टंग कर पेंडुलम की तरह चुपचाप दोलन नहीं करता।और न ही कलाई में बंधी घड़ी की तरह दबी आवाज़ में टिक-टिक करता है।वह गुपचुप अंदाज़ में मोबाइल के भीतर चलता है।उसी मोबाइल में जहाँ सहिष्णुता जैसे किसी मुद्दे के साइड बाय साइड घुइयाँ की सब्जी की रेसिपी डिस्कस होती है।जहाँ टमाटर के महंगेपन के साथ मूली के सस्तेपन पर गहन विमर्श होता है।जहाँ ब्रोकली के भाव तीनसौ पचास रूपये प्रति किलो से बढ़ कर तीनसौ साठ होने पर चिंता जाहिर की जाती है।जहाँ बेबी कॉर्न के दाम घटने पर बधाईयाँ गाई जाती हैं।हर जरूरी बहस का बीज वक्तव्य सब्जी मंडी से फ्री में मिलने वाले धनिये पुदीने के साथ चला आता है।
यह ऐसा देशज कालखंड है।जब सरसों के तेल के बाज़ार भाव में उछाल की शिकायत सयुंक्त राष्ट्र संघ के पटल पर अवलोकनार्थ और आवश्यक कार्यवाही हेतु रखी जाती है।देसी टालरेंस के मुद्दे को लेकर देशी-विदेशी लेखकों के दस्ते घुटनों पर झुक कर इंग्लेंड की महारानी से कातर शब्दों में गुहार करते देखे गये हैं।उनकी अभिव्यक्ति ग्लोबल है।उनकी ख्याति इंटरनेशनल। सरोकार युनिवर्सल।उन्हें याद नहीं कि अब इण्डिया इंग्लिश्स्तान का उपनिवेश नहीं, आज़ाद मुल्क है। वास्तव में बहुआयामी वैचारिकता बड़ी भुलक्कड़ होती है।नादानी को ऐतिहासिक भूल कहना उनकी मनभावन अदा है।
मुल्क की हांडी में महागठबंधन ब्रांड की उम्मीदों से भरी लज़ीज़ बिरियानी पक रही है।बीरबल की मिथकीय खिचड़ी मुल्क की स्मृति से नदारद है क्योंकि अब मुर्गी दाल से सस्ती हो चली है।टमाटर के दाम टिंडे के स्तर तक पहुँच गये है।लहसुन के दाम अनार की बराबरी कर रहे हैं।मटर और कीवी की औकात एक जैसी हो गयी है।गंवार की फली सेब के भाव बिक रही है।सुबह सवेरे नीबू पानी ग्रहण करने वाले संतरे को सस्ता पा ऑरेंज जूस पी रहे हैं।बढ़ते दामों के बीच सस्ते विकल्प मौजूद हैं।एक तरह से देखा जाये तो थोड़े-बहुत अच्छे दिन इधर -उधर आ गये हैं।मज़े से कदमताल कर रहे हैं।जनता की सहभागिता का आह्वान कर रहे हैं।
मानना होगा कि यह अर्धसत्यों  से भरा बेहद कन्फ्यूजन से भरा नयनाभिराम समय  है।

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