#‎पेरिसबर्निंग‬ उर्फ़ बर्निंग इण्डिया



मुल्क में जब धर्मान्धता के खिलाफ़ निर्णायक युद्ध जीत लेने के बाद विजयी सेना जश्न मना रही थी कि तभी पटना से पहले पेरिस में आतिशबाज़ी होने लगी।हंसी ख़ुशी के लड्डुओं के फूटने के लिए पेट कितने विस्तृत हो गये हैं।सीरिया में ड्रोन हमले में मरने वाले रणबांकुरों की आत्मा के लिए शान्तिपाठ करने के लिए उन्होंने पेरिस में उपयुक्त ठिकाना जा ढूंढा। पेरिसबर्निंग के हैशटैग के साथ सोशलमीडिया पर बधाई गायी जाने लगी।उसकी अनुगूंज देश की सहिष्णुतावादी ताकतों के ड्राइंगरूम में भी सुनाई दे रही हैं।तालियों का नेशनलिस्ट कोरस हमारी संवेदनशीलता की निशानदेही करने लगा। 
पेरिस में जो हुआ उसे तो होना ही था।इसके लिए फ़्रांस खुद जिम्मेदार है।वहां की जीवन शैली और विचारों का खुलापन पूरे विश्व के लिए खतरा जो बनता जा रहा है।उससे अत्याधुनिक हथियारों के जरिये ही विनम्रता के साथ निबटा जा सकता है।हमारे यहाँ तो जातिगत सरोकार ही साम्प्रदायिकता को धूल चटा सकने में कारगर हैं।अब हम इत्मिनान के साथ हैशटैग इण्डिया बर्निंग की बाट जोह सकते हैं। 
हम उत्सवधर्मी लोग हैं।एक पर्व निपटता है कि दूसरे के आगमन की आहट सुनाई देने लगती है।वस्तुतः उत्सव हमारी स्मृति सदा मौजूद रहता है।बाज़ार इसके लिए पलक पाँवड़े बिछाये रहते हैं।उसकी निगाह हर बारात और वारदात में से मुनाफ़े का अंकगणित खोज लेती हैं। 
मैंने आज किसी प्रगतिशील को सुबह सवेरे ज़लेबी कचौरी उदरस्थ करते देखा।वह अपने गुब्बारे जैसे पेट में उन्हें हवा की तरह भर रहे थे।ठोस से ठोस चीज को गैस में बदलने की कीमियागिरी उन्हें बखूबी आती है। 
मैंने पूछ लिया,आप इतना सामंती नाश्ता कैसे कर सकते हैं।वह मेरे मूर्खतापूर्ण सवाल पर ‘हो हो’ कर दुर्लभ हंसी हँसे। वह हँसे तो उनकी तोंद में हिलोर-सी उठीं। वह बोले ,महोदय हम कोई रसास्वादन नहीं कर रहे।अपने सरोकारों के बैलून में पर्याप्त गर्म हवा भर रहे हैं ताकि वह खुले आसमान में देर तक उड़ सके। 
“पेरिस में जो हुआ ,उसके बार कुछ कहेंगे सर।“ मैंने पूछा। 
उन्होंने जवाब दिया,”जब तक पेस्ट्री और चॉकलेट की दुकानों पर सेल्स प्रमोशन के लिए एके -सैंतालीस ,हथगोले आरडीएक्स टाइप फ्रीबी दी जाती रहेगी तब तक तो यही होना है।ऊर्जावान बच्चे तो ऐसी छुटपुट नादानियाँ करते ही हैं।“ 
“पर मैंने तो आपको यह कहते सुना था कि जब तक ज़लेबी कचौड़ी की दुकान पर हथियार मिलते रहेंगे तब तक यही सब होता रहेगा?” मैंने सवाल दागा। 
”हाँ तब कहा था जब तक मैं इस दुकान तक नहीं आया था।यहाँ आकर जब हथियार नहीं दिखे तो अपनी राय बदल ली।“उन्होंने कहा। 
“इस तरह तो आप रिविजनिस्ट हुए।“ मैंने टोका। 
“यह विचार का संशोधन नहीं ,विकास है।हमारी विचारधारा ज़लेबी की चाशनी में डूबी मक्खी नहीं है कि उसे बिना देखे सुनें निगल लें।“ अब उनकी आवाज़ में तुर्शी थी। 
मेरे अटपटे सवालों की वजह से उनकी तोंद जल्द फूल कर कुप्पा हो गयी।मैं कुछ समझ पाता इससे पहले ही वह तोंद के सहारे आकाशमार्ग से घर की ओर बढ़ लिए। 
सतह से उठते हुए आदमी के पाँव धरती पर अकसर टिक भी कहाँ पाते हैं।वह पेरिस की घटना का अपडेट पाने के लिए बाल सुलभ कौतुहल से लबरेज़ थे।
@हरिभूमि में प्रकाशित

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