गुड़गाँव, गुरुग्राम और गुलगुले


गुड़गांव का नाम गुरुग्राम हो गया।गुड़ गुरु बन गया।तमाम शक्करखोर इस बात पर पूर्ण स्वाद भाव के साथ नाराज़ हैं।घंटाल इसे लेकर बेहद उत्तेजित हैं।वैसे टेक्निकली देखा जाए तो गुड़ के गुरु हो जाने में कुछ भी दुरूह नहीं।इसे बोलने में न जुबान अटकती है,न किसी की आस्था का कोई बिंदु फ़िसलता है और न ही महाभारत का युद्ध पुन: छिड़ जाने का कोई आसन्न खतरा उत्पन्न होता है।द्रोणाचार्य ने जब कभी एकलव्य से अंगूठा माँगा होगा तो मांग लिया होगा।अब कोई गुरु ऐसी आलतू -फालतू चीज न तो मांगता है और न ही शिष्य देता है।अलबत्ता जिसे मौका मिलता है वह अंगूठा दिखा देता है।और तो और सबसे बड़ी बात यह कि जब गुड़ न होगा तो लोग क्या  खाकर स्वादिष्ट गुलगुलों से परहेज जैसे फालतू काम करने में अपने समय और ऊर्जा का अपव्यय करते हैं।नाम में ग्राम की फीलिंग होगी तब घरघुसरे टाइप के लोग वृथा ही गॉंव घर को लेकर भावुक भी नहीं होगे।वैसे भी ग्राम हर हाल में गाँव से बेहतर होता है जैसे मक्का के दाने  ‘फुल्ले’ से पॉपकार्न बनकर महिमामंडित होते हैं ठीक उसी तरह।जैसे फटी पुरानी घिसी हुई पतलून फेडिड जीन्स फैशन के रूप में अपनी  पहचान बना लेती हैं। पहचान पुराना लफ्ज़ है ,इसे फैशन स्टेटमेंट कहें तो बेहतर।
गुड़गांव का नाम बदलने पर भाईलोग व्यर्थ ही चिंतित हैं।जलेबी का नाम कचौरी रख लो पर रहेगी तो वह चाशनी में आकंठ डूबी मिठास का संजाल ही।चपरासी अपना नाम यदि अफसर अली रख ले तो क्या वह किसी कम्पनी का सीइओ बन जाएगा।मजदूर अपना नाम ठेकेदार रख ले तो क्या उसके सिर पर रखी ईंटों का वजन घट जाएगा? मक्खी अपना नाम बदल कर गिरगिट रख ले तब भी क्या खतरा होने पर अपना रंग बदल पाएगी? सेठजी का नाम ऐसा हो या वैसा लेकिन उनके नाम प्रताप तब तक जस का तस ही रहना है जब तक उनके नामधारी बैंक के खाते और तिजोरी धन से लबालब भरे है।ध्यान रहे नाम सिर्फ नाम ही होते है।न इससे अधिक न इससे कम।हालांकि शेक्सपियर ने अरसा हुआ कहा था कि नाम में क्या धरा है।लेकिन बाज़ार कहता है कि सब नाम का ही तो किया धरा होता है।जब नाम का डंका बजता है तो सब चलता है।बाज़ार के आगे किसी की नहीं चलती।उसके आगे सबको घुटने टेकने होते हैं।
गुरुग्राम बेहद पवित्र -सा नाम लगता है।हमारी अर्वाचीन संस्कृति और माटी में रचा बसा।यह नाम ही ऐसा है कि धार्मिकता में ओतप्रोत आदमी इसका नाम भर ले तो हाथ खुद-ब-खुद उठकर आदरभाव से कान को छू लें, जैसे संगीतकार अपने उस्ताद मरहूम का जिक्र करते हुए  अक्सर करते हैं।आजकल इसी तरह के नामों की डिमांड भी है।मिनी स्कर्ट बिकनी आदि बेचने वाले भी अपनी दुकान का नाम लिबास रखते हैं ताकि आधुनिकता के साथ परम्परा का मजबूत गठजोड़ यथावत बना रहे। टू पीस स्विम सूट बेचने वाले बुटीक ‘हया’ के नाम से बड़े मजे से खूब जाने और पहचाने जाते हैं।हया शब्द बतौर ब्रांड नेम फबता  भी बहुत है।वह हया जो  कारोबारी  होती है , उसकी ही ऊँची हवा रहती है।हया हो या बेहया या फिर हवा फरफर कर चलती हुई अच्छी लगती है।
कुछ भी कह लें,वाकई नाम हो तो गुरुग्राम जैसा।जैसे कभी नत्थूलाल की मिथकीय मूंछ हुआ करती थी,जिनके विषय में  यह क्रांतिकारी लोकोक्ति पचलित है कि मूंछे हो तो नत्थूलाल जैसी वरना क्लीनशेव्ड ही भले।इसे इतिहास में हज्जाम के उस्तरे के पक्ष में दिया गया पहला अधिकारिक लेकिन तनिक विरोधाभासी बयान भी माना जाता है।
अब दो नामों के विकल्प हमारे पास है।जब मन कहे कि चलो कुछ मीठा हो जाए तो गुरुग्राम को बड़े लाड़ से गुड़गांव कह लिया वरना गुरुग्राम में गुरूजी वाले आध्यात्मिक सान्निध्य और लॉजिक के जरूरी  तत्व तो मौजूद हैं ही।



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