लौटाने के मौसम में न गलने वाली अरहर की दाल
मौसम आते जाते रहते
हैं।सर्द गर्म तीखे नरम मस्त मुलायम।आजकल मुल्क के बुद्धिजीवियों के बीच पुरस्कार
सम्मान आदि लौटाने आपाधापी मची है।वे पूरे मनोयोग से अकादमियों को प्रशस्ति पत्र
वापिस कर रहे हैं। यह काम करते हुए उनके चेहरे उसी तरह तमतमाए हुए हैं जैसे उन्हें
प्राप्त करते हुए चमचमाए हुए थे।वैसे उनका तमतमाना ‘बाई डिफॉल्ट’ चमचमाने जैसे ही
है।
दीवाली आ रही है।
इसकी भनक मिलते ही घर की साफ़ सफाई के लिए
अभियान की रूपरेखा बनने लगती है। कम्युनल टाइप के लोग यह काम खुलेआम करते हैं। बुद्धिवादी
लोग गुपचुप तरीके से करते हैं। समाज के सेक्युलर तानेबाने के लिए यह गोपनीयता जरूरी भी है। शैल्फ़ में सजे या दीवारों
पर टंगे पुरस्कारों को लौटाना भी आवश्यक है ताकि सरोकारों पर जमी धूल साफ़ हो और वे उसे
नये रंग में रंगवा सकें।
कल मैडम जी पूछ रही
थीं – कालोनी के सारे लेखक कुछ न कुछ लौटा आये हैं ।आप कुछ न वापिस किये।
-मेरे पास तो सिर्फ
अपनी नादानियाँ हैं। कहो तो वही लौटा दूं
? मैंने पूछा।
-यह चीज तो
रद्दीवाले भी न उठाते। तुम तो रहने ही दो। ।उन्होंने तुनक कर कहा।
-अरे याद आया ।कहो
तो बरसों पहले की गयी मूर्खता सौंप दूँ
किसी को? मैंने कहा।
मैडम जी को मेरी कही
बात ठीक से समझ न आई तो उन्होंने पलकें
ठीक उसी तरह झपझपाई जैसे ड्राइंग रूम के शोकेस में दशकों से रखी जापानी गुड़िया जरा-
सा हिलने पर झपकाती है।यह गुड़िया कभी प्यार में आकंठ डूबे युवक ने अपनी प्रेयसी
पत्नी को दी थी। इस जापानी गुड़िया का जानने लायक अतीत सिर्फ इतना है कि उसे लाने वाला युवक मैं था।
-अरे हाँ याद आया।
उस जापानी गुड़िया को लौटा दूं। शोकेस में जगह बनेगी तो वहां कोई रिमोट वाला गुड्डा
लाकर रख देंगे।
मैडम जी को यह तो
लगा कि मैंने कोई चुभती हुई बात कही ।पर वह उसे ठीक से समझ न पाई तो बोली –अजी
बातें बनाना बंद करो और जाओ,परचूनिए को अरहर की वो दाल वापस दे आओ ,जो लाख कोशिशों
के बाद और प्रेशर कुकर द्वारा सीटी दर सीटी बजाने के बावजूद गलती नहीं। यह कह उन्होंने
दाल मुझे थमा दी।
दो सौ रुपये प्रति
किलोग्राम वाली दाल का पैकेट लिए मैं सोच रहा हूँ कि क्या खुद को लेखक मानने की गलतफहमी
के बावजूद बस यही चीज है हमारे पास वापस लौटाने के लिए?
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