ओलंपिक का समापन और चोर की दाढ़ी में तिनका


रियो ओलंपिक का समापन हुआ। खेल खत्म, पैसा हजम। बच्चा लोग ताली बजाओ। अफसोस से झुकी गर्दनों को फिर अकड़ने दो। अब अगले चार साल तक कोई जोखिम नहीं। आओ अब आरोप-आरोप खेलें। बीच-बीच में जब ऐसा करते हुए मन उकताए, तो पदक जीतने वाली बेटियों की शान में कसीदे काढ़ लेंगे।
मुल्क की जनता को बताते रहेंगे कि हमें सिर्फ गमगीन होना ही नहीं वरन विजय का जश्न मनाना भी आता है। हमें अपने मुकद्दर पर पछताना ही नहीं, गौरवान्वित महसूस करना भी आता है। एक अरब 25 करोड़ लोगों के लिए ये दो पदक ऐसे हैं, जैसे डूबते को तिनके का सहारा। मगर यह ध्यान रहे, अपने यहां चोर की दाढ़ी में भी तिनके का मिथकीय घोंसला पाया जाता है।
जब तक ओलंपिक हुए, तब तक हर रात हम किसी अप्रत्याशित स्वदेशी जीत का सपना लेकर सोए और हर सुबह फेल्प्स या बोल्ट की अप्रतिम जीत की खबर सुनकर जागते रहे। वैश्विक परिदृश्य में खुद को रखकर मानवीय कामयाबी का यशगान करते रहे। लोगों को यह बता-बताकर आश्वस्त होते रहे कि पराजय की आद्र्रता भरे अंधकार में ही उजाले के अंकुर उपजते हैं। हर हार में जीत के अदृश्य गुलदान सजे होते हैं। ‘बेटर लक नेक्स्ट टाइम’ कहने से किसी की देशभक्ति पर सवालिया निशान थोड़े लग जाने वाला है।
खेल खत्म हुए, तो अब लग रहा है कि हमारे भीतर अजीब खालीपन पसर गया है। जैसे बारात चली गई हो और झूठे बरतन,कागज की प्लेट व टिशु पेपर जनवासे में यहां-वहां पड़े रह गए हों। हवा के तेज प्रवाह में खनकते और बिखरते हुए। बात-बात पर मुंह बिसराने वाले बारात बहादुर अनायास निठल्ले हो गए हैं। उनकी समझ में नहीं आ रहा कि वे अब करें, तो क्या करें? कारवां गुजर गया है, तो चिंतकों ने आंख पर काले चश्मे चढ़ा लिए हैं, ताकि गुबार से सम्यक बचाव हो।
रियो के बाद लोगों की नजर देश की सीमाओं की ओर है। अब उनकी नजर इस फ्रंट के जरिये होने वाले मनोरंजन पर है। खेल न हो, तो यह खींचतान ही सही, कुछ न कुछ तो होना ही है जिंदगी जीने के लिए।

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