इतिहास के खुले
पन्ने और फड़फड़ाती वक्तकटी
फ़ाइलें खुलीं।इतिहास
सामने आया।जिसने पढ़ा उसी ने कहा कि अरे यह तो अतीत है।सिर्फ बीते हुए दिनों का
ब्यौरा है ,जिसमें न कोई सनसनी और न रोमांच की भनक।जर्द पन्नों के हाशिये पर लिखी सरकारी
बाबुओं की टीप वैसी ही है जैसी आज भी दफ्तरों के दस्तावेजों पर आमतौर पर लिखी और
गोपनीय के टैग के साथ छिपा दी जाती हैं।
फाइलें बंद रहती हैं
तो बड़ी उत्सुकता जगाती हैं।सात तालों में बंद रहती है तो आठवें ताले के न जड़े होने
का मुद्दा हवा में उछलता है।नवें या दसवें ताले की अपरिहार्यता पर गहन विमर्श होता
है।ऐसी बहस अविराम चलती हैं और तालाजड़ित
फाइलों के पृष्ठों से सूचनाएँ निशब्द रिसती हैं।जानकारियां उसी तरह रिसती हैं जैसे
बंद रसगुल्ले के डिब्बे से मीठा शीरा।डिब्बा बंद रहता है और तमाम शक्करखोर जीव
जन्तु बड़ी शाइस्तगी के साथ उसका रसास्वादन करते हैं।
एक समय था जब इतिहास
से सबक सीखने की बात की जाती थी।अब इसके जरिये दूसरों की छिछालेदार की जाती है और
अपने लिए महिमामंडित होने के कारक ढूंढे जाते हैं।इससे ‘सबक-वबक’ सीखना गयी-गुजरी
बात हुई ,इसके पुनर्पाठ के जरिये शीत लहर की चपेट में आई राजनीति के लिए अलाव का
ईंधन तलाशा जाता है।ठंडाई जनता इस पर बतगड़ के हाथ तापती है और नेताटाइप परजीवी मंतव्यों
के लच्छेदार परांठे तलते हैं।
फाइलों के कागजों पर
जो लिखा होता है वह तो सब पढ़ पाते हैं लेकिन जो अदृश्य को बांच लेता है ,वह परम
मेधावी माना जाता है।इतिहास वही रचते हैं जिनको अपने अतीत का ज्ञान और उसे संजो कर
रखने की उत्कंठा न्यूनतम होती है।वास्तव में इतिहास वो नुकीला ढेला होता है जिसे
भविष्य की ओर उछालने से वर्तमान गौरवमय
होता है।यही वह संधिस्थल है जब इतिहास और फेंटेसी एकाकार हो जाते हैं।
फाइलें क्या खुली कि
वातावरण ‘फ्रीजर’ बन गया।मार्निंग वॉक पर आते-जाते लोगों को अनायास लगा कि उनके वे
हाथ जो जरा-से परस्पर घर्षण से चकमक पत्थर
बन जाते थे, उनकी ताब जाती रही।अब जब कुछ और फ़ाइल खुलें तो शायद उनमें से गुनगुनी
धूप का कोई टुकड़ा निकले।
नेताजी की गुमशुदगी
से जुड़ी बंद फाइलों में जिंदा उम्मीदें अभी भी दफ़न हैं।जब तक ये खुलें अतीतजीवियों
ने तय किया है तब तक वे इंतजार और कयास के ऊनी कपड़ों से तन ढंक कर वक्तकटी के लिए
बतकही का सिलसिला जारी रखेंगे।
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